वे अंबेडकर मिशन के लिए आजीवन कार्य करेंगे-
निर्वाण प्राप्त नानकचंद रतू साहब ने बाबासाहेब डॉ अंबेडकर को उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में कई बार अत्यंत दु:खी एवं अकेले में रोते हुए पाया. लेकिन बाबासाहेब से इस बारे में पूछने की इतनी हिम्मत किस में? आखिर एक दिन उन्होंने हिम्मत तथा दृढ़ संकल्प के साथ पूछने पर उन्हें बताया कि ना तुम और और ना कोई यह जानता है कि उन्हें क्या कष्ट हैं, जिसके कारण वे दुःखी है, वे चिंतित है कि वे अपना जीवन लक्ष्य पूर्ण करने में असफल रहे. उनकी इच्छा थी कि उनके लोग भी अन्य समुदायों के साथ समानता के स्तर पर राजनीतिक सत्ता में भागीदारी करते शासक वर्ग के रूप में दिखे. परंतु बीमारी ने उन्हें अब लगभग अपंग और निस्सहाय बना दिया. जो कुछ भी वे उपार्जित कर पाये, उसका फल शिक्षित वर्ग खा रहा हैं, जो कि वे अपने छलपूर्ण कार्यों तथा लज्जाजनक व्यवहार के कारण निकम्मे सिद्ध हुए हैं. उनके मन में अपने भाइयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है, जो कि वे ऐसा कभी सोच भी नहीं सकते थे. वे अपनी कब्र खुद आप खोद रहे हैं.
वे आगे कहते हैं जब वे अपना ध्यान गांव के विशाल निरक्षर समुदाय की ओर मोड़ते हैं तो वे पाते हैं कि अभी वे कष्ट भोग रहे हैं और उनकी आर्थिक अवस्था लगभग पहले जैसे ही पाते हैं. परंतु अब उनका स्वास्थ्य साथ नहीं देता. उनकी इच्छा थी कि उनके जीते जी अपने लोगों में से कोई आगे आता और उनके इस आंदोलन को चलाने का गंभीर उत्तरदायित्व उनसे वह अपने कंधों पर लेता. परंतु ऐसा कोई नहीं जो उठ कर स्थिति संभाले.
उनके सहायकों पर उन्हें पूर्ण विश्वास और भरोसा था, परंतु वे तो नेतृत्व तथा सत्ता के लिए आपस में लड़ते पाये गये. उन्हें इस बात तक की परवाह तक नहीं रही कि कितना गंभीर उत्तर- दायित्व उनके कंधों पर पड़ने वाला है. वे यह भी चाहते थे कि उनकी सभी पुस्तकें उनके जीवन काल में प्रकाशित हो, क्योंकि उनके बाद कोई भी उन्हें छपवा नहीं पाएगा. इससे वे अत्यंत व्यथित थे. वे रतू जी से कहते हैं कि मेरे लोगों को यह बता देना कि उनके लिए जो कुछ भी वे प्राप्त कर पाये, वह उन्होंने अकेले ही किया , इसके लिए उन्होंने दुष्कर विपत्तियों तथा अनंत कष्टों का सामना किया.
अंत में वे अपने लोगों को अंतिम संदेश देते हुए कहते हैं- “जो कुछ मैं कर पाया हूं वह जीवन भर मुसीबतें सहन करके अपने विरोधियों से टक्कर लेने के बाद ही कर पाया हूं, जिस कारवां को जो आप यहां देख रहे हैं, उसे मैं अनेक कठिनाइयों से यहां ले आ पाया हूं. अनेकों अवरोधों, जो इसके मार्ग में आ सकते हैं, के बावजूद इस करवां को बढ़ाते रहना है. अगर मेरे अनुयायी इसे आगे ले जाने में असमर्थ रहें तो इसे वहीं पर छोड़ देना, जहां पर यह अब है, पर किन्हीं भी परिस्थितियों में इसे पीछे नहीं हटने देना है. मेरे लोगों के लिए मेरा यही संदेश है.” (संदर्भ – प्रसिद्ध विद्वान लेखक आयु. बी. आर. सांपला साहब, इंग्लैंड द्वारा लिखित पुस्तक -अम्बेडकर महान्- पहला भाग में निर्वाण प्राप्त नानकचंद रतू साहब द्वारा लिखित आलेख में वर्णित वृतांत).
निर्वाण प्राप्त एल. आर. बाली साहब जब तक दिल्ली (सन 1948 से 1954 तक) में रहे, उन्हें महामानव बाबासाहेब को नजदीकी से देखने, मिलने, सुनने व समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो अक्सर बहुत कम लोगों को नसीब होता है. वे दिल्ली में बाबासाहेब के परम अनुयायिओं से अक्सर मिलते थे. निर्वाण प्राप्त आयु. नानकचंद जी रतू साहब से भी वे मिला करते थे, जो पंजाब के रहने वाले थे तथा बाबासाहेब के भाषणों, पत्रों के उत्तर और लेखों को टाइप करने की जिम्मेदारी व बाबासाहेब के पांव दबाने, नींद न आने पर सिर पर तेल मालिश भी रतू जी किया करते थे.
बाबासाहेब से आयु. बाली साहब अंतिम बार 30 सितंबर 1956 को 26, अलीपुर रोड, नई दिल्ली में मिले, उस दिन बाबासाहेब डॉक्टर अंबेडकर की अध्यक्षता में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी (बाद में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया बनी) की मीटिंग संपन्न हुई. एक सरकारी कर्मचारियों के नाते वे उक्त मीटिंग में तो शामिल नहीं हो पाए, पर पंजाब के शेड्यूल कास्ट फेडरेशन पार्टी के सदस्यों के साथ दिल्ली अवश्य गए थे. उक्त मीटिंग की समाप्ति के पश्चात् वे बाबासाहेब के कमरे में गए और उन्हें वचन दिया कि वे अंबेडकर-मिशन के लिए आजीवन कार्य करेंगे.
इसके पश्चात 6 दिसंबर 1956 को बाबासाहेब के परि- निर्वाण के दिन स्मृति -शेष आयु. बाली साहब ने अपनी स्थायी केंद्रीय सरकार (पोस्टल डिपार्टमेंट) की सर्विस से त्यागपत्र दे कर वे सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर तन, मन व धन से समर्पण व निःस्वार्थ भावना से अंबेडकर-मिशन की सेवा में सक्रिय रूप से जुट गये. तब से उन्होंने सन् 1958 में “भीम पत्रिका” के नाम से एक अंबेडकरी मिशनरी अखबार का प्रकाशन शुरू किया, जो उनके जीवन पर्यंत निरंतर प्रकाशित होता रहा. वे एक प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार तथा उन्होंने लगभग 100 से भी ज्यादा पुस्तकों का लेखन व प्रकाशन किया. बाबासाहेब के परि- निर्वाण पश्चात उनके तीनों मजबूत संगठनों (ऑल इंडिया समता सैनिक दल, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया व भारतीय बौद्ध महासभा) के बिखराव पर आयु. बाली साहब ने उनमें पुनः जान फूंकने का पूरा प्रयास किया. उन्होंने बाबासाहेब के निष्ठावान अनुयायियों को साथ लेकर ऑल इंडिया समता सैनिक दल को सन् 1977 में पुनर्गठित किया. बाबासाहेब के द्वारा लिखित अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित करवाने के लिए आदरणीय बाली साहब ने अनवरत कानूनी लड़ाई लड़ी व बाबासाहेब के निष्ठावान अनुयायियों के साथ मिलकर ऑल इंडिया समता सैनिक दल के माध्यम से आंदोलन किया. तत्पश्चात महाराष्ट्र सरकार ने बाबासाहेब डॉ अंबेडकर के संपूर्ण अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित किया. इस ऐतिहासिक कार्य के लिए बाली साहब को लोग हमेशा याद करेंगे. उन्होंने देश-विदेश में अंबेडकर-मिशन का प्रचार-प्रसार व कई संगठन स्थापित किये तथा उसके उद्देश्य के बारे में लोगों को समझाया. अंबेडकर मिशन के लिए वे 94 वर्ष की आयु में भी जीवन पर्यंत सेवा करते हुए उनके ऊपर में कई मुकदमें, मुसीबतों के क्या-क्या कहर ढायें व कई आफ़तें उनके सामने आयी. पर वे बाबासाहेब को दिए गए वचन को निभाते हुए वे कभी भी ना झुकें, ना टूटे व ना बिकें. उन्होंने युवाओं को एक अच्छे नागरिक बनने व अच्छे समाज के निर्माण पर जोर दिया. जो कि न्याय व नैतिकता पर आधारित समाज ही किसी देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा का जनक होता है. वे अपने भाषणों में लोगों से कहते थे कि बाबासाहेब डॉ अंबेडकर एक ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने स्वयं कई अत्याचार, अपमान व निंदा को सहन करके हमारे लिए एक उज्जवल भविष्य की न केवल कामना ही की थी अपितु उसकी रूपरेखा तैयार की और उसका अस्तित्व सदा बना रहे, जो भारतीय संविधान में विद्यमान हैं. उन्होंने बाबासाहेब के महान् जीवन की विशेषता को बताते हुए कहा कि वे जो कुछ कहते थे, वैसा ही करते थे, उनकी कथनी व करनी में कोई अंतर नहीं था. उन्होंने कभी किसी देवी-देवता की उपासना नहीं की. कभी किसी ऐसी धर्म-स्थान की यात्रा नहीं की, जो इंसान को अंधविश्वास व रूढ़िवाद के गहन अंधकार में भटकाते हैं. उन्होंने कभी किसी मादक पदार्थ, शराब, तंबाकू अथवा ड्रग्स इत्यादि का सेवन नहीं किया. उनके इन्हीं गुणों के कारण उनके विरोधी भी उनकी बहुत प्रशंसा करते थे, उनका आदर करते थे और उनकी वार्ता व वक्तव्यों और भाषणों को अति सत्कार व गहनता से सुनते और उन पर विचार करते थे. डॉ. बाबासाहेब समय को बहुत महत्व देते थे. वे अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते थे. वे प्रतिदिन व्यायाम किया करते थे
इस प्रकार की दिनचर्या के फलस्वरुप ही वे भारत के संविधान का निर्माण कड़ी मेहनत करके कर सके. तंदरुस्त शरीर में ही तंदरुस्त दिमाग हुआ करता है.
– प्रस्तुति- एस आर शौर्य द्वारा